भारतीय तीरंदाज़ दीपिका कुमारी रविवार को पेरिस में आयोजित (आर्चरी वर्ल्ड कप) तीरंदाजी विश्वकप (स्टेज़ 3) में तीन गोल्ड मेडल जीतकर वर्ल्ड रैंकिंग में पहले पायदान पर पहुंच गई हैं.
दीपिका ने महिलाओं की व्यक्तिगत रिकर्व स्पर्धा के फाइनल राउंड में रूसी खिलाड़ी एलेना ओसिपोवा को 6-0 से हराकर तीसरा गोल्ड मेडल अपने नाम किया. इससे पहले उन्होंने मिक्स्ड राउंड और महिला टीम रिकर्व स्पर्धा में भी गोल्ड मेडल हासिल किया. दीपिका ने मात्र पाँच घंटे में ये तीनों गोल्ड मेडल हासिल किए हैं.
दीपिका इससे पहले मात्र 18 साल की उम्र में वर्ल्ड नंबर वन खिलाड़ी बन चुकी हैं. अब तक विश्व कप प्रतियोगिताओं में 9 गोल्ड मेडल, 12 सिल्वर मेडल और सात ब्रॉन्ज मेडल जीतने वालीं दीपिका की नज़र अब ओलंपिक मेडल पर है.
पेरिस में हुए इस टूर्नामेंट – आर्चरी वर्ल्ड कप में भारत की दीपिका कुमारी ने एक ही दिन में तीन गोल्ड मेडल अपने नाम किए। दीपिका ने अपना पहला गोल्ड मेडल महिला टीम रिकर्व स्पर्धा में अंकिता भगत और कोमोलिका बारी के साथ मेक्सिको की टीम को हराकर जीता। उन्होंने दूसरा मेडल मिक्स्ड डबल्स में अतनु दास के साथ जीता और तीसरा गोल्ड मेडल एकल रिकर्व स्पर्धा में अपने नाम किया।
Three gold medals. 🥇🥇🥇
— World Archery (@worldarchery) June 27, 2021
Three winning shots.
Deepika Kumari is in the form of her life. 🇮🇳🔥#ArcheryWorldCup pic.twitter.com/bMdvvGRS6i
इस जीत के साथ ही दीपिका कुमारी दोबारा दुनिया की नंबर वन तीरंदाज़ बन गई हैं। इससे पहले उन्होंने साल 2012 में यह खिताब हासिल किया था। अपनी जीत पर वर्ल्ड आर्चरी.कॉम से बीतचीत के दौरान दीपिका ने कहा कि वह बेहद खुश हैं, साथ ही अपनी इस परफॉर्मेंस को उन्हें बरकरार रखना होगा, क्योंकि आने वाला टूर्नामेंट उनके लिए बेहद अहम है। यहां दीपिका टोक्यो ओलंपिक्स की बात कर रही थीं। दीपिका की यह जीत कई मायनों में महत्वपूर्ण है। सबसे ज़रूरी यह कि उन्होंने यह शानदार जीत टोक्यो ओलंपिक से पहले हासिल की है। इससे आगामी ओलंपिक में उनसे बेहतर प्रदर्शन की उम्मीदें और अधिक बढ़ गई हैं।
दीपिका के इस कामयाबी पर भारतीय मीडिया और महिलाओं के मामले में संवेदनहीनता को लेकर फेमिनिज़्म इन इंडिया ने प्रकाशित किया है कि, देश की मीडिया द्वारा इस जीत को वह कवरेज नहीं मिली जिसकी वह हकदार हैं। देखा जाए तो जितनी चर्चा बीते दिनों भारतीय क्रिकेट टीम को न्यूज़ीलैंड द्वारा मिली हार को लेकर हुई, दीपिका की इस शानदार जीत को वह भी हासिल नहीं हुआ। क्रिकेट में टीम इंडिया की हार अखबारों के पहले पन्ने और वेबसाइट्स की लीड खबरें तो बनीं, लेकिन दीपिका की जीत को या तो अखबारों में चंद लाइनों में पहले पन्ने पर समेट दिया या फिर उन्हें जगह ही नहीं दी। हालात ये रहे कि कई लोगों ने बकायदा ट्वीट करके एक कैंपेन चलाया कि दीपिका कुमारी को पूरी कवरेज दी जाए।
उदाहरण के तौर पर टीम इंडिया की हार का अखबार हिंदुस्तान टाइम्स (दिल्ली संस्करण) ने शुरुआत के ही एक पूरे पन्ने पर विश्लेषण किया लेकिन दीपिका की जीत की खबर को एक कॉलम में समेट दिया। साथ ही दीपिका स्पोर्ट्स पेज से भी गायब दिखीं।

टाइम्स ऑफ इंडिया (दिल्ली संस्करण) के शुरुआती पन्ने पर दीपिका की खबर को एक छोटा सा कॉलम मिला लेकिन स्पोर्ट्स के पन्नों पर भी दीपिका की खबर क्रिकेट, फुटबॉल या टेनिस जितना महत्व नहीं पा सकी।

वहीं अगर नज़र डालें हिंदी के प्रतिष्ठित अखबारों पर तो अमर उजाला (दिल्ली संस्करण) के स्पोर्ट्स पेज पर दीपिका की जीत की खबर से अधिक इस बात को तरजीह दी गई कि प्रधानमंत्री मोदी ने मन की बात में क्या कहा।

हिंदुस्तान (दिल्ली संस्करण) के शुरुआती पन्नों ने भी दीपिका की जीत को एक कॉलम में जगह दी। वहीं, स्पोर्ट्स के पन्ने पर भी दीपिका की खबर को मुख्य खबर के रूप में नहीं रखा गया, न ही उनकी तस्वीर लगाई गई।

बात अगर दैनिक जागरण (दिल्ली संस्करण) की करें तो वहां दीपिका की खबर को मास्ट हेड पर ज़रूर जगह मिली लेकिन स्पोर्ट्स पेज पर क्रिकेट की खबरों को ही प्रमुखता दी गई।

जनसत्ता ने ज़रूर पहले पन्ने पर दीपिका की खबर को पहले पन्ने के निचले कॉलम में जगह दी।
महिला खिलाड़ियों की उपलब्धि और मेल गेज़
महिलाओं के लिए खेल के क्षेत्र में भी सिर्फ समान वेतन इकलौता मुद्दा नहीं है। दीपिका के पार्टनर अतनु दास भी एक तीरंदाज़ हैं और इस वर्ल्ड कप में उन्होंने भी हिस्सा लिया है। दीपिका और अतनु ने साथ मिलकर एक गोल्ड मेडल भी जीता है। यहां दीपिका और अतनु ने बतौर खिलाड़ी अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिया है। लेकिन एक महिला खिलाड़ी को हमेशा एक उसी पितृसत्तात्मक, मेल गेज़ से देखना हमारे मीडिया की आदत रही है। मीडिया के लिए एक महिला खिलाड़ी, खिलाड़ी बाद में किसी की पत्नी, मां, बहन पहले होती है। उदाहरण के लिए अमर उजाला में छपी खबर की यह लाइन पढ़िए- “अतनु दास और उनकी पत्नी दीपिका कुमारी ने रविवार को तीरंदाजी विश्व कप की मिश्रित टीम स्पर्धा के फाइनल में स्वर्ण पदक जीता।” एक तथाकथित मुख्यधारा मीडिया की वेबसाइट जिसे हर रोज़ लाखों लोग पढ़ते हैं, क्या उसे यह तक नहीं पता कि दीपिका कुमारी ने इस टूर्नामेंट में हिस्सा बतौर खिलाड़ी लिया है। उनकी पहचान सिर्फ अतनु दास की पत्नी नहीं बल्कि विश्व की सर्वश्रेष्ठ तीरंदाज़ की है। न सिर्फ कई बार मीडिया ने दीपिका की पहचान सिर्फ अतुन दास की पत्नी होने तक सीमित की बल्कि टूर्नामेंट में उन दोनों की उपलब्धियों पर उनके निजी रिश्ते की कहानियां हावी नज़र आईं। बतौर खिलाड़ी अपनी जीत और साथ का जश्न मना रहे दीपिका और अतनु को भी शायद यह मंज़ूर न हो कि उनके खेल पर उनका निजी जीवन हावी रहे।
एक खिलाड़ी की उपलब्धि को जब हम निजी रिश्तों तक सीमित कर देते हैं तो ज़ाहिर सी बात है आम जन में भी उसके निजी जीवन से जुड़ी खबरों को पढ़ने की उत्सुकता बढ़ेगी। यहां दिक्कत अमर उजाला या किसी ख़ास वेबसाइट की नहीं है। यहा दिक्कत है उस मेल गेज़ की जिसके तहत ये खबरें लिखी जाती हैं। वह मेल गेज़ जो एक औरत को स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में नहीं देखता। मेल गेज़ और स्पोर्ट्स सिर्फ खबरें लिखने और ब्रॉडकास्ट करनेवालों तक सीमित नहीं है। मेल गेज़ स्पोर्ट्स देखनेवालों में भी उतना ही हावी है। स्पोर्ट्स देखनेवाले और उनपर खबरें लिखनेवाले इसी पितृसत्तात्मक समाज का हिस्सा हैं। उदाहरण के लिए भारतीय क्रिकेटर स्मृति मंधाना पर किया गया यह ट्वीट देखिए।

खिलाड़ियों, उनके लुक्स, मैदान के बाहर उनकी फैन फॉलोविंग कोई नई बात नहीं है। कई लोगों को इस ट्वीट में कोई परेशानी नज़र नहीं आती। हां एक खिलाड़ी के लुक्स की फैन-फॉलोविंग बहुत सामान्य है लेकिन इस मेल गेज़ की आड़ में महिला खिलाड़ियों की पूरी उपलब्धि को ही नकार दिया जाता है। नैरेटिव बस उनके कपड़ों, उनके निजी जीवन और लुक्स तक सीमित कर दिया जाता है। जबकि ऐसे पुरुष खिलाड़ियों के साथ नहीं होता। पुरुष खिलाड़ी इस मामले में काफी प्रिविलेज़्ड होते हैं। उन्हें इस बात का नुकसान नहीं उठाना पड़ता। आप गूगल में फीमेल एथलीट्स का कीवर्ड डालकर देखिए। सर्च रिज़ल्ट में आपको दिखाई देगा कि लोग ये खोज रहे हैं कि सबसे खूबसूरत महिला खिलाड़ी कौन है? “दुनिया की 10 सबसे हॉट महिला खिलाड़ी” ऐसे शीर्षकों के साथ आपको कई लेख मिल जाएंगे। चाहे वह खेल का मैदान हो या आम जीवन महिलाओं को हमेशा से ही उनके शरीर, पुरुषों से उनके संबंधों तक ही सीमित किया जाता रहा है।
यूनाइटेड नेशन एडुकेशनल, साइंटफिक एंड कलचरल ऑरगनाइज़ेशन (UNESCO) की एक रिपोर्ट ‘जेंडर इक्वॉलिटी इन स्पोर्ट्स मीडिया’ के मुताबिक खेल के क्षेत्र में 40 फीसद खिलाड़ी महिलाएं हैं लेकिन उन्हें सिर्फ 4 फीसद कवरेज ही मिल पाती है। इस सीमित कवरेज में भी अधिकतर महिला खिलाड़ियों को ऑब्जेक्टिफाई किया जाता है या कमतर आंका जाता है। इसका सीधा संबंध इससे भी है कि आज भी स्पोर्ट्स जर्नलिज़म में पुरुषों का एकाधिकार है।

दीपिका जैसे खिलाड़ियों की उपलब्धियों की कवरेज क्यों ज़रूरी
बात जब हम मीडिया कवरेज की करते हैं, खासकर महिलाओं के खेल की तो हम आसानी से कह सकते हैं कि न सिर्फ दीपिका बल्कि महिलाओं के किसी खेल को वह कवरेज नहीं मिलती जो पुरुषों को मिलती है। हां क्रिकेट ज़रूर इस मामले में हमारे देश में थोड़ा आगे है लेकिन पुरुषों के क्रिकेट के सामने उसकी कवरेज भी फीकी पड़ जाती है। तीन गोल्ड मेडल, दो बार विश्व की नंबर वन तीरंदाज़ बनने का सफ़र दीपिका के लिए आसान नहीं था। झारखंड के रातू गांव में उनका जन्म हुआ। मां गीता महतो और पिता शिवनारायण महतो के लिए दीपिका के तीरंदाज़ के खेल को आर्थिक तौर पर समर्थन देना नामुमकिन था। बचपन में वह आम पर निशाना लगाकर प्रैक्टिस किया करतीं। आर्थिक दिक्कतों का सामना करते हुए, देश के एक पिछड़े राज्य से आज वह यहां तक पहुंची हैं। भारत में क्रिकेट के बाद किसी अन्य खेल को कवरेज मिलना ऐसे भी एक चुनौती है। लेकिन पर्याप्त कवरेज और समर्थन के बिना कई खिलाड़ी पीछे रह जाते हैं। ये खिलाड़ी पहले से ही सीमित संसाधनों के बीच खेल रहे होते हैं। इन सीमित संसाधनों के बीच ही वे मेडल लेकर आते हैं लेकिन उसके बाद भी कितनों की आर्थिक स्थिति नहीं बदलती। हमने न जानें कितनी ऐसी खबरें पढ़ी होंगी जहां राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल चुके खिलाड़ी सब्ज़ी बेचने को मजबूर हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर झारखंड की एथलीट गीता कुमार जो आठ गोल्ड मेडल जीत चुकी हैं, इस लॉकडाउन में सब्ज़ी बेचने को मजबूर हो गईं।
मानसिक स्वास्थ्य के लिए नाओमी ओसाका के फैसले से लेकर उन्हें कमज़ोर कहना, सानिया मिर्ज़ा की स्कर्ट की लंबाई और उनकी शादी, मारिया शारपोवा के ऑब्जेक्टिफिकेशन, से लेकर हर बार पितृसत्ता खेल के क्षेत्र में महिलाओं को कैद करने की कोशिश जारी रखती हैं। यही पितृसत्ता मीडिया की कवरेज में भी झलकती है। इसलिए ज़रूरी है कि खेल की कवरेज में भी लैंगिक संवेदनशीलता को प्रमुखता दी जाए। वंचित और हाशिये पर गए समुदाय और क्षेत्रों से आनेवाले खिलाड़ियों, खासकर महिला खिलाड़ियों के लिए खेल के इस प्रिविलेज़्ड क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करवाना ही किसी जीत से कम नहीं होता। इसलिए उन खिलाड़ियों को प्रमुखता दी जानी चाहिए जो समाज के रूढ़िवादों, जातिवाद, लिंगभेद, वर्ग-विभेद आदि चुनौतियों का सामना कर अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश में लगे हैं। खेल की कवरेज में भी समावेशी नज़रिया ज़रूरी है तभी यहां मौजूद विशेषाधिकार और मेल गेज़ की दीवार दरकेगी।
विश्व तीरंदाजी पेरिस में तीन गोल्ड मेडल दीपिका कुमारी महतो की जगह दीपिका मिश्रा जीतती तो मीडिया में बड़ी बड़ी ब्रेकिंग न्यूज चलती। सैकड़ो डिबेट होती। पीएम, सीएम, एमपी, एमएलए, प्रसीडेंट की बधाई की ट्वीट की झड़ी लग जाती। एंकर नाचते। संपादक गाते। पर अफसोस है जाति है कि जाती ही नहीं pic.twitter.com/NuN100B0Ai
— Hansraj Meena (@HansrajMeena) June 28, 2021
शिखर धवन का अंगूठा फैक्चर होने पर ट्वीट करने वाला महामानव @narendramodi झारखंड की आदिवासी बेटी दीपिका कुमारी के तीन गोल्ड मेडल जीतने पर भी मुँह में दही जमाए बैठा है। #AntiBhujanModi pic.twitter.com/cFQql4ED99
— Hansraj Meena (@HansrajMeena) June 28, 2021
जीत के दूसरे दिन पीएम मोदी की बधाई
दीपिका की इस कामयाबी की खबर पूरे भारत में गूंजने लगी। भारत का सिरमौर्य ऊंचा करने वाली दीपिका को लाखों लोगों ने बधाइयाँ दी। पूरे दिन यह खबर ट्रेंडिंग में होने के बावजूद दीपिका का हौसला बढ़ाने के लिए देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ट्वीट दूसरे दिन आता है।
The last few days have witnessed stupendous performances by our archers at the World Cup. Congratulations to @ImDeepikaK, Ankita Bhakat, Komalika Bari, Atanu Das and @archer_abhishek for their success, which will inspire upcoming talent in this field.
— Narendra Modi (@narendramodi) June 29, 2021
दीपिका के पिता शिव नारायण महतो एक ऑटो-रिक्शा ड्राइवर के रूप में काम किया करते थे. वहीं, उनकी माँ गीता महतो एक मेडिकल कॉलेज में ग्रुप डी कर्मचारी के रूप में काम करती हैं.
ओलंपिक महासंघ ने एक शॉर्ट फिल्म बनाई है जिसमें दीपिका और उनके परिवार ने दीपिका के सफर से जुड़ी चुनौतियों का ज़िक्र किया है.
दीपिका के पिता शिव नारायण बताते हैं, “जब दीपिका का जन्म हुआ तब हमारी आर्थिक हालत बहुत ख़राब थी. हम बहुत ग़रीब थे. हमारी पत्नी 500 रुपये महीना तनख़्वाह पर काम करती थी. और मैं एक छोटी सी दुकान चलाता था.”
इस फिल्म में ही दीपिका बताती हैं कि उनका जन्म एक चलते हुए ऑटो में हुआ था क्योंकि उनकी माँ अस्पताल नहीं पहुंच पायी थीं.
जब ओलंपिक खेलने गई थीं तब भी परिवार की आर्थिक हालत बहुत ख़राब थी.

14 बरस की उमर में उठाया तीर-धनुष
कहते हैं कि ज़िंदगी में बहुत कुछ संयोगवश होता है. 14 साल की उम्र में पहली बार धनुष-बाण उठाने वाली दीपिका का तीरंदाजी की दुनिया में प्रवेश भी संयोगवश हुआ. और उन्होंने अपनी शुरुआत बांस के बने धनुष बाण से की.
दीपिका कहती हैं कि “वह तीरंदाज़ी के प्रति इतनी दीवानी हैं क्योंकि उन्होंने इस खेल को नहीं बल्कि इस खेल ने उन्हें चुना है.”
तीरंदाजी की दुनिया में अपनी एंट्री की कहानी बताते हुए दीपिका कहती हैं, “साल 2007 में जब हम नानी के घर गए तो वहां पर मेरी ममेरी बहन ने बताया कि उनके वहां पर अर्जुन आर्चरी एकेडमी है.
जब उसने ये बोला कि वहां पर सब कुछ फ्री है. किट भी मिलती है, खाना भी मिलता है. तो मैंने कहा कि चलो अच्छी बात है, घर का एक बोझ कम हो जाएगा. क्योंकि उस समय आर्थिक संकट बहुत गहरा था.”
लेकिन जब दीपिका ने अपनी ख़्वाहिश पिता के सामने रखी तो वह निराश हो गयीं.
दीपिका बताती हैं, “राँची एक बहुत ही छोटी और रूढ़िवादी जगह है. मैंने जब पिता को बताया कि मुझे आर्चरी सीखने जाना है तो उन्होंने मना कर दिया.”

चुनौतियों की शुरुआत
दीपिका के पिता बताते हैं कि उनका समाज लड़कियों को घर से इतना दूर भेजना ठीक नहीं मानता है.
वे कहते हैं, “छोटी सी बेटी को कोई भी अगर 200 किलोमीटर दूर भेज दे तो लोग क्या कहते हैं, कहते हैं कि ‘अरे बच्ची को खिला नहीं पा रहे थे, इसीलिए भेज दिया…”
लेकिन दीपिका आखिरकार राँची से लगभग 200 किलोमीटर दूर स्थित खरसावाँ आर्चरी एकेडमी तक पहुंच गयीं.
लेकिन ये चुनौतियों की शुरुआत भर थी. एकेडमी ने उन्हें पहली नज़र में ख़ारिज कर दिया क्योंकि दीपिका बेहद पतली-दुबली थीं. दीपिका ने एकेडमी से तीन महीने का समय माँगा और खुद को साबित करके दिखाया.
एकेडमी में दीपिका की ज़िंदगी का जो दौर शुरू हुआ वह काफ़ी चुनौती पूर्ण था.
दीपिका बताती हैं, “मैं शुरुआत में काफ़ी रोमांचित थी. क्योंकि ये सब कुछ नया – नया सा हो रहा था. लेकिन कुछ समय बाद मेरे सामने कई तरह की समस्याएं आईं जिससे मैं निराश हो गयी.
एकेडमी में बाथरूम नहीं थे. नहाने के लिए नदी पर जाना पड़ता था. और रात में जंगली हाथी आ जाते थे. इसलिए रात में वॉशरूम के लिए बाहर निकलना मना था. मगर धीरे-धीरे जब तीरंदाज़ी में मजा आने लगा तो वो सब चीज़ें गौण होने लगीं. मुझे धनुष जल्दी मिल गया था और मैं जल्दी शूट भी करने लगी थी. ऐसे में धीरे-धीरे रुचि बढ़ने लगी और फिर तीरंदाज़ी से प्यार हो गया.”

जब दीपिका को मिले ‘द्रोणाचार्य’
दीपिका ने शुरुआत में ज़िला स्तरीय प्रतियोगिताओं से लेकर कई प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया. कुछ प्रतियोगिताओं में इनाम राशि 100, 250 और 500 रुपये तक होती थी. लेकिन ये भी दीपिका के लिए काफ़ी महत्व रखती थीं.
इसी दौरान 2008 में जूनियर वर्ल्ड चेंपियनशिप के ट्रायल के दौरान दीपिका की मुलाक़ात धर्मेंद्र तिवारी से हुई जो कि टाटा आर्चरी एकेडमी में कोच थे.
दीपिका बताती हैं, “धर्मेंद्र सर ने मुझे सलेक्ट किया और मुझे खरसावां से टाटा आर्चरी एकेडमी लेकर आए. मुझे वो जगह इतनी पसंद आई कि मैंने वहां घुसते ही एक दुआ माँगी कि भगवान में ज़िंदगी भर यहीं रहूं. और मेरी दुआ पूरी भी हुई.”
धर्मेंद्र तिवारी वर्तमान में भी दीपिका के कोच हैं. दुनिया की नंबर वन तीरंदाज बनने से जुड़ा दीपिका का अनुभव बेहद मज़ेदार है.
दीपिका ने अपने एक इंटरव्यू में बताया है कि जब साल 2012 में वह दुनिया की नबंर वन तीरंदाज बन गईं तब उन्हें ये पता ही नहीं था कि वर्ल्ड रैंकिंग में नंबर वन होने का मतलब क्या होता है.
इसके बाद उन्होंने अपने कोच से इसके बारे में पूछा तब पता चला कि नंबर वन बनने के मायने क्या होते हैं.